२६ फरवरी, १९७२

 

२१ फरवरीके संदेशके बारेमें

 

   ''केवल तभी जब 'अतिमन' शरीर-मनमें अभिव्यक्त हो, तभी उसकी उपस्थिति स्थायी हो सकतीं है ।',

 

-श्रीमां

 

यह श्रीअरविदका कथन है -- उन्होंने ऐसे कर दिया है, मानों मेरा कथन हो । यह श्रीअरविंदने लिखा था । मैंने सिर्फ इतना कहा : ''श्रीअरविद- ने ''स्थायी रूपसे'' शब्दका प्रयोग किया था ।''

 

   लेकिन, माताजी, यह आपकी अनुभूति है, अतः...

(माताजी हंसती है)

 

 ( मौन)

 

   लेकिन ज्यादा बुद्धिमत्ता यही है कि इसके हों जानेपर ही इसके बारेमें बोला जाय! जब इसकी प्रतिष्ठा हो जाय तो. अभीके लिये (एक ओरसे दूसरी ओर संकेत) ।

 

  भौतिक मनका नियंत्रण.. .पता नहीं किस छोरसे पकड़ा जाय । मुझे यह बहुत कठिन लगता है ।

 

बहुत कठिन, यह बहुत कठिन है ।

 

  तुम्हें अपनी इच्छाके अनुसार नीरवता प्राप्त करनेसे शुरु: करना चाहिये, किसी भी क्षण नीरवता प्राप्त करना । मुझे लगता है कि यही आरंभ-विंदु है ।

 

हां, लेकिन इच्छानुसार नीरवता प्राप्त करना कठिन नहीं हैं, एक सेकंडके लिये एकाग्र होनेसे ही यह नीरव हो जाता है और जबतक एकाग्रता रहे वह पूरी तरह नीरव रहता है, लेकिन एकाग्रतामें ढील आते ही खतम... ।

 

(माताजी हंसती हैं)


   ... वह गति करता है, इस ओर हिलता है, उस ओर हिलता है ।

 

लव मन इधर-उधर दौड़नेकी आदत खो चुका है । उसे यह आदत खोनी चाहिये ।

 

    यह कैसे किया जाय?

 

पता नहीं, क्योंकि मेरे लिये यह सहज था । केवल जब कोई मेरे साथ बोलता है या कोई चीज मुझे वहांसे हिलानेके लिये आती है... । अन्यथा अपने-आपमें, बिलकुल स्वाभाविक रूपसे वह ऐसा रहता है (ऊपरकी ओर उठे हुए और निश्चलकी मुद्रा)... शायद यही तरीका है (वही मुद्रा) : इस भाति भगवान्का मनन ।

 

 (स्मितपूर्ण मौन)

 

   यही है स्वाभाविक स्थिति, यही ( वही मुद्रा) । काफी आश्चर्यकी बात है कि यह... शरीरके अंदर संवेदनद्वारा अनूदित भी होती है, शरीर- मे ऐसा संवेदन होता है मानों यह पूरी तरह लिपटा हुआ हों, मानों कोई बच्चा कपड़ेमें लिपटा हों । सचमुच इस तरह, मानों भगवान्में लिपटा हों ( मुद्रा) ।

 

( मौन)

 

  दो-तीन दिन हुए, मुझे ठीक याद नहीं, एक बहुत बड़ी कठिनाई थी । और तुरंत मुझे ऐ सा लगा कि मैं लिपटी हुई हू... ( मुद्रा), मानों मैं एक बालककी नाई हूं जो भगवान्की भुजाओंमें है । तुम समझ रहे हों, यह ऐ सा ही था । यह ऐसा ही था मानों एक बालक भगवान्की भुजाओंमें हों । और फिर.. एक क्षणके बाद ( लेकिन यह लंबा क्षण था), जब यह इस तरह एकमात्र भगवान्की उपस्थितिमें था तो सारी पीड़ा गायब हो गयी । इसने पीडाके जानेकी मांगतक नहीं की, लेकिन वह चली गयी । उसने कुछ समय तो लिया, पर चली गयी ।

 

  मुझे पूरी तरह, पूरी तरहसे यही लग रहा था कि मै एक बालककी नाई भगवान्की भुजाओंमें लिपटी हू ( मुद्रा) । यह असाधारण है ।

 

 ( मौन)

 

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   हां, तो कुछ समयके लिये ऐसा है : ''जो 'तेरी' इच्छा, जो 'तेरी' इच्छा .... '', और फिर यह भी चुप... (माताजी समर्पण-भावसे ऊपरकी ओर भुजाएं उठाती हैं) ।

 

 (मौन)

 

    एकाग्रताका प्रकार बदलना चाहिये ।

 

हां !

 

 क्योंकि जब व्यक्ति भौतिक मनके अनुशासनका अनुसरण करता है और जब वह उससे दाएं-बाएं निकल जाता है तो वह हमेशा मानसिक एकाग्रता शुरू कर देता है और मानसिक तीरपर नीरवताको फिरसे स्थापित करता है । इस भांति, हर बार वह मनके द्वारा अनुशासन लाता है...

 

ओ !

 

   ... लेकिन मन, जैसे हीं उसे जरा ढीला छोड़ा जाय... किसी चीजका अवतरण होना चाहिये, किसी चीजको अधिकार करना चाहिये ।

 

वास्तवमें, यह बच्चेकी असमर्थताकी भावना है, समझे? लेकिन यह कोई ''सोची हुई'' या ''इच्छित'' वस्तु नहीं है, यह बिलकुल सहज होली -देर । और फिर वहांसे तुम एक ऐसी स्थितिमें चले जाते हों... (माताजी हाथ पसारती हैं और चेहरेपर आनंदमय स्मित) ।

 

  जबतक यह भावना रहे कि कोई इच्छा करता है, कोई कुछ करता है, या इस तरहकी बातें, यह बेकार है... (वही मुद्रा, हाथ फैले हुए और आनंदमय स्मित) ।

 

 (माताजी ध्यानमें चली जाती है)

 

      प्रभु हमारी देखभाल करते है?

 

(हंसते हुए) मेरा ख्याल है कि हां !

 

       (माताजी शिष्यका हाथ पकड़ लेती हैं)

 

 तुम 'उन्हें' अनुभव नहीं करते?

 

  जी हां, माताजी ।

 

 आहा !..

 

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